वे स्वयं भू हैं,
वे सर्वज्ञ हैं, ज्ञानी हैं,
वे स्वघोषित मठाधीश हैं,
वे ही मुवक्किल, मुंसिफ और न्यायाधीश हैं।
स्वनिर्मित एक आभामंडल है उनका
बनाया है जिसको दिखावे के रंगों से
बह जाएगा जो पहली ही बरसात में।
बहुत से कांकर -पाथर जोड़ कर
(जिन्हें वे बहुमूल्य रत्न समझते हैं)
एक सिंहासन निर्मित किया है उन्होंने
जिसपर स्वयं को प्रतिष्ठित कर
वे बहुत गौरवान्वित हैं।
कुंठा और हीनभावना उनके संगी साथी
अहममन्यता और अहंकार उनके अनुचर
पददलित भावनाएं उनकी प्रजा
मानसिक रुग्णता उनकी सेविका।
वे जैसा सोचें, वैसा वो करें
आज्ञा न मानें तो मिले सजा
रात को दिन कहें तो दिन
दिन को रात कहें तो रात बोलें।
वे सब पर कड़ी निगाह रखते हैं
किंतु कोई उन्हें कुछ कहे
वे नहीं सहते हैं।
कहने को तो उच्च शिक्षित हैं
किंतु भावशून्य,पाषाण हृदय
अपने दायरे में ही सीमित हैं
उनकी ओर से कोई मरे या जिये
बस, उनकी आज्ञा,उनका शासन चले।
दूसरों पर कीचड़ उछालना उनका प्रिय शगल है
मुंह में राम, छुरी बगल है
मृदु भावों से उनका कोई नाता नहीं
किसी का सम्मान उन्हें किंचित भाता नहीं
संबंधों का रिमोट उनके हाथ में है
जब जी चाहे वे तोड़ दें
या कि अपमानित कर छोड़ दें
अपने अभिमान में वो तने हैं
जाने किस मिट्टी के बने हैं।
कभी जब क्रोध का वेग हो जाता है भयंकर
तब लावे के रूप में निकलता है बहकर
नष्ट कर डालता है कोमल संवेगों को
अजन्मे भावों को,नर्म नाज़ुक रिश्तों को
पलकों में पलते सपनों को।
झुलसा देता है बिरवा विश्वास का
जो रोपा था कभी सुखद पलों में
शेष नहीं रहता फिर कहीं कुछ
बस मुट्ठी भर राख बीते पलों की
कुछ कटु स्मृतियां किये गए छलों की।
और हां! एक चेतावनी भी है मठ के द्वार पर
"यह शांति का घर है
यहां कुरूपता,नग्नता का
अनधिकृत प्रवेश वर्जित है"
ओह! कितना विरोधाभास है न
अशांत चित्त में शांति का वास
यह कैसा परिहास???