वक़्त की आँखें तुम्हें ही
ढूँढती हैं
हो सके तो लौट आओ
भावना की
जिन तरंगों पर लिखा था
प्रेम तुमने
गा रही हैं, आज भी वो महकती हैं
है प्रतीक्षारत अभी
अनुराग
मन की वीथियों में
आहटें वन पाखियों सी चहकती हैं
स्वस्ति गीतों की
मधुर स्वर लहरियों को
साथ तुम भी गुनगुनाओ
हो सके तो लौट आओ
कस रही हैं फब्तियाँ
संभावना
अनुमानना पर
'सांत्वनाएँ' दे रही हैं किन्तु सम्बल
पर्वतों को
तोड़ कर बहती नदी
जितना ताप दिया जीवन ने
जितना ताप
दिया जीवन ने
भला जेठ क्या दे पाएगा
उम्र बसंती
पर कोने में
पड़ी हुयी है मुरझाई सी
उल्लासों की
लाल पाँखुरी
साँसे ओढ़े उकताई सी
अंतर में ठहरे
हिमनद को
मौसम कैसे पिघलाएगा
तन को समिधा
सा दहका कर
सुबह-शाम फिरना पड़ता है
मन को फिर इस
हवन कुंड में
धू-धू कर जलना पड़ता है
ज्वालाओं की
नित्य कथाओं
को सूरज क्या सुलगाएगा
रोज़ सवालों
की पोथी ले
मास्टरनी सी आ जाती है
हर जवाब को
ग़लत बता कर
हथेलियाँ चटका जाती है
मजबूरी की
संटी जितनी
जलन ग्रीष्म कैसे लाएगा
मैं तुम्हारी याद में हूँ
मैं तुम्हारी याद में हूँ
या हवा में उड़ रही हूँ
सोच तो लूँ
नर्म घेरे हैं तुम्हारी
बाज़ुओं के
या कि मैं लिपटी हुई हूँ
बादलों में
पंछियों के झुंड में मैं
खो गई हूँ
गुम हुई हूँ या कि ख़ुद की
हलचलों में
दूर होती जा रही हूँ
या कि ख़ुद से जुड़ रही हूँ
सोच तो लूँ
इक गुलाबी झील कोई
बह रही है
पाँव जिसमें डाल कर
सूरज खड़ा है
अधखुली सी आँख है
या फिर तुम्हारी
स्वप्न कोई सुर्ख़ जिसमें
आ पड़ा है
किस तरफ़ हूँ चाहती मुड़ना
किधर पर मुड़ रही हूँ
अकलमंद इंसान
बरतन बोले बरतन से
हम देख -देख हैरान
हमसे ज़्यादा खड़क रहे हैं
अक़्लमंद इंसान
आमादा हैं सारे
हाथापाई पर
कफ़न पड़ा रिश्तों के
अक्षर ढाई पर
लालच के घुँघरू पहने
भाईचारा
नाचे आना-आना,
पाई -पाई पर
घर-घर खेल रहे हैं देखो
घर- घर सजे मकान
मित्र-शत्रु के अर्थ खड़े
असमंजस में
कौन, कौन है ? पूछ रहे हैं
आपस में
गलबहियों की चटक चाँदनी
डूब रही
गलछुरियों की काली घोर
अमावस में
सूने-सूने दीख रहे हैं
रिश्तों के गुलदान
सम्वादों के पाँव दिखें
भटके-भटके
मीठे सम्वेगों के मुँह
लटके- लटके
हथेलियों को तरस रहीं हैं
हथेलियाँ
विश्वासों के शीशे हैं
चटके -चटके
अंजाने अपने हैं लेकिन
अपने हैं अनजान